Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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सूरदास-महाराज, मैं खुशी से जमीन न बेचूँगा।
नायकराम-सूरे, कुछ भंग तो नहीं खा गए? कुछ खयाल है, किससे बातें कर रहे हो!
सूरदास-पंडाजी, सब खियाल है, आँखें नहीं हैं, तो क्या अक्किल भी नहीं है! पर जब मेरी चीज है ही नहीं, तो मैं उसका बेचनेवाला कौन होता हूँ?
राजा साहब-यह जमीन तो तुम्हारी ही है?
सूरदास-नहीं सरकार, मेरी नहीं, मेरे बाप-दादों की है। मेरी चीज वही है, जो मैंने अपने बाँह-बल से पैदा की हो। यह जमीन मुझे धरोहर मिली है, मैं इसका मालिक नहीं हूँ।
राजा साहब-सूरदास, तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई। अगर और जमींदारों के दिल में ऐसे ही भाव होते, तो आज सैकड़ों घर यों तबाह न होते। केवल भोग-विलास के लिए लोग बड़ी-बड़ी रियासतें बरबाद कर देते हैं। पंडाजी, मैंने सभा में यही प्रस्ताव पेश किया है कि जमींदारों को अपनी जायदाद बेचने का अधिकार न रहे, लेकिन जो जायदाद धर्म-कार्य के लिए बेची जाए, उसे मैं बेचना नहीं कहता।
सूरदास-धरमावतार, मेरा तो इस जमीन के साथ इतना ही नाता है कि जब तक जिऊँ, इसकी रक्षा करूँ, और मरूँ, तो इसे ज्यों-की-त्यों छोड़ जाऊँ।
राजा साहब-लेकिन यह तो सोचो कि तुम अपनी जमीन का एक भाग केवल इसलिए दूसरे को दे रहे हो कि मंदिर बनवाने के लिए रुपये मिल जाएँ।
नायकराम-बोलो सूरे, महाराज की इस बात का क्या जवाब देते हो?
सूरदास-मैं सरकार की बातों का जवाब देने जोग हूँ कि जवाब दूँ? लेकिन इतना तो सरकार जानते ही हैं कि लोग उँगली पकड़ते-पकड़ते पहुँचा पकड़ लेते हैं।
साहब पहले तो न बोलेंगे, फिर धीरे-धीरे हाता बना लेंगे, कोई मंदिर में जाने न पाएगा, उनसे कौन रोज-रोज लड़ाई करेगा।
नायकराम-दीनबंधु, सूरदास ने यह बात पक्की कही, बड़े आदमियों से कौन लड़ता फिरेगा?
राजा साहब-साहब क्या करेंगे, क्या तुम्हारा मंदिर खोदकर फेंक देंगे?
नायकराम-बोलो सूरे, अब क्या कहते हो?
सूरदास-सरकार, गरीब की घरवाली गाँव-भर की भावज होती है। साहब किरस्तान हैं, धरमशाले में तमाकू का गोदाम बनाएँगे, मंदिर में उनके मजूर सोएँगे, कुएँ पर उनके मजूरों का अड्डा होगा, बहू-बेटियाँ पानी भरने न जा सकेंगी। साहब न करेंगे, साहब के लड़के करेंगे। मेरे बाप-दादों का नाम डूब जाएगा। सरकार, मुझे इस दलदल में न फँसाइए।
नायकराम-धरमावतार, सूरदास की बात मेरे मन में भी बैठती है। थोड़े दिनों में मंदिर, धरमशाला, कुआँ, सब साहब का हो जाएगा, इसमें संदेह नहीं।
राजा साहब-अच्छा, यह भी माना; लेकिन जरा यह भी तो सोचो कि इस कारखाने से लोगों को क्या फायदा होगा। हजारों मजदूर, मिस्त्री , बाबू, मुंशी, लुहार, बढ़ई आकर आबाद हो जाएँगे, एक अच्छी बस्ती हो जाएगी, बनियों की नई-नई दूकानें खुल जाएँगी, आस-पास के किसानों को अपनी शाक-भाजी लेकर शहर न जाना पड़ेगा, यहीं खरे दाम मिल जाएँगे। कुँजड़े, खटिक, ग्वाले, धोबी, दरजी, सभी को लाभ होगा। क्या तुम इस पुण्य के भागी न बनोगे?
नायकराम-अब बोलो सूरे, अब तो कुछ नहीं कहना है? हमारे सरकार की भलमंसी है कि तुमसे इतनी दलील कर रहे हैं। दूसरा हाकिम होता तो एक हुकुमनामे में सारी जमीन तुम्हारे हाथ से निकल जाती।
सूरदास-भैया, इसीलिए न लोग चाहते हैं कि हाकिम धरमात्मा हो, नहीं तो क्या देखते नहीं हैं कि हाकिम लोग बिना डाम-फूल-सूअर के बात नहीं करते। उनके सामने खड़े होने का तो हियाव ही नहीं होता, बातें कौन करता। इसीलिए तो मानते हैं कि हमारे राजों-महाराजों का राज होता, जो हमारा दु:ख-दर्द सुनते। सरकार बहुत ठीक कहते हैं, मुहल्ले की रौनक जरूर बढ़ जाएगी, रोजगारी लोगों को फायदा भी खूब होगा। लेकिन जहाँ यह रौनक बढ़ेगी, वहाँ ताड़ी-शराब का भी तो परचार बढ़ जाएगा, कसबियाँ भी तो आकर बस जाएँगी, परदेशी आदमी हमारी बहू-बेटियों को घूरेंगे, कितना अधरम होगा! दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी के लालच से दौड़ेंगे, यहाँ बुरी-बुरी बातें सीखेंगे और अपने बुरे आचरन अपने गाँव में फैलाएँगे। दिहातों की लड़कियाँ, बहुएँ मजूरी करने आएँगी और यहाँ पैसे के लोभ में अपना धरम बिगाड़ेंगी। यही रौनक शहरों में है। वही रौनक यहाँ हो जाएगी। भगवान् न करें, यहाँ वह रौनक हो। सरकार, मुझे इस कुकरम और अधरम से बचाएँ। यह सारा पाप मेरे सिर पड़ेगा।
नायकराम-दीनबंधु, सूरदास बहुत पक्की बात कहता है। कलकत्ता, बम्बई, अहमदाबाद, कानपुर, आपके अकबाल से सभी जगह घूम आया हूँ, जजमान लोग बुलाते रहते हैं। जहाँ-जहाँ कल-कारखाने हैं, वहाँ यही हाल देखा है।
राजा साहब-क्या बुराइयाँ तीर्थस्थान में नहीं हैं?
सूरदास-सरकार, उनका सुधार भी तो बड़े आदमियों ही के हाथ में है, जहाँ बुरी बातें पहले ही से हैं, वहाँ से हटाने के बदले उन्हें और फैलाना तो ठीक नहीं है।
राजा साहब-ठीक कहते हो सूरदास, बहुत ठीक कहते हो। तुम जीते, मैं हार गया। जिस वक्त मैंने साहब से इस जमीन को तय करा देने का वादा किया था, ये बातें मेरे धयान में न आई थीं। अब तुम निश्चिंत हो जाओ, मैं साहब से कह दूँगा, सूरदास अपनी जमीन नहीं देता। नायकराम, देखो, सूरदास को किसी बात की तकलीफ न होने पाए, अब मैं चलता हूँ। यह लो सूरदास, यह तुम्हारी इतनी दूर आने की मजूरी है।
यह कहकर उन्होंने एक रुपया सूरदास के हाथ में रखा और चल दिए।
नायकराम ने कहा-सूरदास, आज राजा साहब भी तुम्हारी खोपड़ी को मान गए।

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